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गुज़री है क्या इस दिल पे…(ग़ज़ल)

एक मनमौजी की दास्तां
एक मनमौजी की दास्तां
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बहुत समझाता हूँ इसको पर ये कहाँ मानता है
गुज़री है क्या इस दिल पे, बस ये दिल जानता है.

कहाँ फरियाद करूं मैं के ज़माना ही बेवफा है
तड़प इस दिल की खुदा देखता है,खुदा जानता है.

मैं के बे-बस हूँ, मेरा दिल मेरे बस में नहीं है
दिले बेचैन को बहलाना अब मेरे बस में नहीं है.

नाज़ तेरे उठा उठा के गरीब दिल मैं हो गया
अब इस गरीब को कहाँ कोई पहचानता है.

बहुत समझाता हूँ इसको पर ये कहाँ मानता है
गुज़री है क्या इस दिल पे, बस ये दिल जानता है.

ज़माना ठोकरें देता है, महबूब ताने देता है
दिले बेकस ये दुनिया छोड़ के न जाने देता है.

मुहब्बत के चलन में खुद को ही मिट जाना होता है
“राज” मुहब्बत में दिल सिर्फ महबूब को ही मानता है.

बहुत समझाता हूँ इसको पर ये कहाँ मानता है
गुज़री है क्या इस दिल पे, बस ये दिल जानता है.

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