एक मनमौजी की दास्तां
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मेरे हमसफ़र तू कभी कभी मेरे पास आ तन्हा हूँ मैं
इन दूरियों को ख़त्म कर इन्हें तू मिटा तन्हा हूँ मैं.
मैं तरस गया तेरे लम्स को, तेरी दीद भी न हो सकी
तू मुझ को दूर से कभी कोई दे सदा तन्हा हूँ मैं.
उम्मीद से तेरी दीद के मैं जी रहा हूँ अब यहाँ
मुझको अकेला छोड़ कर तू यूँ न जा तन्हा हूँ मैं.
मेरी हसरतें, मेरी चाहतें, हैं तेरी रफाकत के लिए
मुझसे न तू अब इस तरह दामन छुड़ा तन्हा हूँ मैं.
है दुआ मेरी रब से यही, तू क़बूल कर मेरी दुआ
मुझको मेरे महबूब से अब दे मिला तन्हा हूँ मैं.
इस ज़िन्दगी से “राज” अब बेहतर है लगती मौत भी
अब अपने पास मेरे खुदा मुझे ले बुला तन्हा हूँ मैं.
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