एक मनमौजी की दास्तां
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तेरी याद आ के मुझे हर बार रुलाती रही,
मैं के बेचैन था मुझे और सताती रही.
दिले-बेचैन को जितना भी समझाया मैंने,
उसी शिद्दत से तेरी याद मुझे आती रही.
मैंने भी चाह था खुश होना मगर,
मेरी तन्हाई हर खुशियों को मिटाती रही.
ढूंढ़ता रहा मैं दिल के चैन को सदियों,
वो सरे-राह मुझ बेबस को टहलाती रही.
विसाले-यार को तरस गया मैं, हो न सका,
ज़िन्दगी भर मुझे इस क़दर वो तडपाती रही.
बहाना कोई न था दुनिया में जीने के लिए,
एक उम्मीद थी जो वो भी अब जाती रही.
“राज” तुम ने मांगी जो मौत भी रब से,
मौत तो आई पर तुझे सालों बहलाती रही.
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