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ज़फ़ा के ज़ख्म…(ग़ज़ल)

एक मनमौजी की दास्तां
एक मनमौजी की दास्तां
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ज़फ़ा के ज़ख्म मैं धोऊँ तो कैसे
भरी महफ़िल है अब रोऊँ तो कैसे.


वो चुरा ले गए हैं नींद मेरी
रात तो है मगर सोऊँ तो कैसे.
ज़फ़ा के ज़ख्म मैं…………….


तू ज़फ़ाकार,बेवफ़ा, बेमुरव्वत निकला
मैं भी तेरी तरह होऊँ तो कैसे.
ज़फ़ा के ज़ख्म मैं…………….


मेरी हसरतें हैं खोई,चैन भी खोया
ज़िन्दगी याद है तेरी इसे खोऊँ तो कैसे.
ज़फ़ा के ज़ख्म मैं…………….


जुदाई मेरी क़िस्मत को बख्श दी तू ने
मैं ज़फ़ा के बीज जो बोऊँ तो कैसे.
ज़फ़ा के ज़ख्म मैं…………….


रुलाया तुने मुझे दिन-रात लेकिन “राज”
तेरी पलकें मैं अश्कों से भिगोऊँ तो कैसे.


ज़फ़ा के ज़ख्म मैं धोऊँ तो कैसे
भरी महफ़िल है अब रोऊँ तो कैसे.

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