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वक़्त देखो कैसा अनजान हो रहा है…(ग़ज़ल)

एक मनमौजी की दास्तां
एक मनमौजी की दास्तां
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ये वक़्त देखो कैसा अनजान हो रहा है,
शैतान जग रहे हैं, इन्सान सो रहा है.


सब हैं मगन ख़ुदी में हमदर्द नहीं कोई,
हर फर्द घर में अपने गुलफ़ाम हो रहा है.


एक दुसरे के ऊपर कीचड़ उछालते हैं,
ये देखते नहीं उसका क्या अंजाम हो रहा है.


एक नाम के सहारे दूजा नाम कमा रहा है,
जो बदनाम नहीं करता वो बदनाम हो रहा है.


भाई एक मर गया है तो खुश हुआ है दूजा,
ये शहर था कभी आज कब्रिस्तान हो रहा है.


तुझे कल पड़ेगा रोना जो अब भी तू न माना,
तुझे “राज” है बताता, क्यूँ परेशान हो रहा है?

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