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ज़नाज़ा उठ रहा था (ग़ज़ल)

एक मनमौजी की दास्तां
एक मनमौजी की दास्तां
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लोग इधर भी रो रहे थे, उधर भी रो रहे थे
इधर ज़नाज़ा उठ रहा था, डोली उधर उठ रही थी.


इधर मेरी मौत का ग़म था, मातम था
उधर चेहरे पे उनके ख़ुशी फूट रही थी.


घर उधर बस रहा था घर किसी का नया
इधर मेरी सपनों की दुनिया लुट रही थी.


तोड़ कर रिश्ता मेरे दिल से उसका दिल न भरा
वो मुस्कुरा रहा था,मेरी सांसों की डोरी टूट रही थी.


“राज” जब क़फ़न में मलबूस हो कर निकला
निगाहें तब भी पश-मंज़र में उसे ढूंढ रही थी.

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