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बिछड़ने का इरादा भी नहीं है…(ग़ज़ल)

एक मनमौजी की दास्तां
एक मनमौजी की दास्तां
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मरने का तेरे गम में इरादा भी नहीं है
है इश्क मगर इतना ज्यादा भी नहीं है.


है यूँ के इबारत की जुबां और है कोई
कागज़ मेरी तक़दीर का सदा भी नहीं है.


क्यों देखते रहते है सितारों की तरफ हम
जब उनसे मुलाक़ात का वडा भी नहीं है.


क्यों उसकी तरफ देख के पाओं नहीं उठते
वोह शख्श हसीं इतना ज्यादा भी नहीं है.


किस मोड़ पे ले आया हमें हिज्र मुसलसल
ताउम्र निग्ह-वस्ल का वादा भी नहीं है.


पत्थर की तरह सर्द है क्यों आंख किसी की
जब “राज” बिछड़ने का इरादा भी नहीं है.

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