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…….तो अच्छा था! (ग़ज़ल)

एक मनमौजी की दास्तां
एक मनमौजी की दास्तां
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दरो-दीवार हैं, एक दर होता तो अच्छा था
अपना एक खुबसूरत घर होता तो अच्छा था.


उसकी जुल्फों की ठंडी छाओं में सोता
ऐसा अपने साथ अक्सर होता तो अच्छा था.


तनहा निकला था मैं ज़िन्दगी के सफ़र में
इस सफ़र में एक हमसफ़र होता तो अच्छा था.


यूँ तो सदियाँ गुज़रीं के वो हमें भूल गये
मैं भी उसे भूल गया गर होता तो अच्छा था.


उस की यादों को दिल में बसा लिया हम ने
मर लिया दिल पे एक खंजर होता तो अच्छा था.


मौत के साथ शायद ग़म भी भूल जाता मैं
जो तेरी यादों से बे-ख़बर होता तो अच्छा था.


“राज” अब दर्दे-जुदाई मुझे बर्दाश्त नहीं
जो तेरा साथ ज़िन्दगी भर होता तो अच्छा था.

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