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मैं हूँ इक ऐसा मरहम (कविता)

एक मनमौजी की दास्तां
एक मनमौजी की दास्तां
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मैं लिखना छोड़ दूंगा, कलम को तोड़ दूंगा
मैं इस दुनिया से यारों अपना मुंह मोड़ लूँगा.


मैं जी लूँगा तेरे बिन, मैं मर लूँगा अकेले
मुझे नहीं तेरी जरूरत, कफन खुद ओढ़ लूँगा.


ये दुनिया कौन है जो अपने रिश्ते को कोसे
मैं इस दुनिया से अपना हर रिश्ता तोड़ लूँगा.


तुम ख्यालों में मेरे अब भी बसती हो जानां
जो हो रुसवाई का तुझे डर, तेरा दामन छोड़ दूंगा.


सोग दिल टूटने का मना ऐ “राज” ना अब
मैं हूँ इक ऐसा मरहम तेरा दिल जोड़ दूंगा.

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