एक मनमौजी की दास्तां
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मैं शिकार हूँ किसी और का मुझे मारता कोई और है
मुझे जिसने बकरी बना दिया वो भेड़िया कोइ और है ।
कई सर्दियॉ भी ग़ुज़र गईं मैं उसके काम न आ सका
मैं लिहाफ़ हूँ किसी और का मुझे ओढ़ता कोई और है ।
मुझे चक्करों में फँसा दिया मुझे इश्क ने तो रुला दिया
मैं माँग हुँ किसी और का मुझे मांगता कोइ और है ।
मेरे रोब में तो वो आ गया मेरे सामने तो वो झुक गया
मुझे पिट के ये ख़बर हुई मुझे पीटता कोइ और है ।
जो गरजते हैं वो बरसते हों कभी हम ने ऐसा सुना नहीं
यहाँ भोंकता कोइ और है और काटता कोइ और है ।
अज़ब आदमी है ये “राज” भी उसे बेक़सूर ही जानिए
ये डाकिया है जनाबे मन, इसे भेजता कोइ और है ।
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